अमाँ मिली न किसी को मिला क़रार कभी कोई भी अपनी ज़मीं से न हो फ़रार कभी बटेंगे हम भी क़बीलों में ये न सोचा था मिलेगा ख़ौफ़-ज़दा ऐसा रेगज़ार कभी जो हम-सफ़र हैं हमारे वो पुर-ख़ुलूस नहीं न राहबर पे रहा हम को ए'तिबार कभी यक़ीं न आया कि सदियाँ गुज़ार दीं जिस पर उस एक शाख़ को काटेगा अपना यार कभी मैं चल दिया हूँ ऐ 'मंज़र' तो इस यक़ीन के साथ कोई न जाएगा इस तरह सू-ए-दार कभी