आमोख़्ते का जाल ज़बाँ से लिपट गया बदली हवा तो हर्फ़ का पाँसा पलट गया मुझ से निकल के हैबत-ए-शब का था सामना साया वुफ़ूर-ए-ख़ौफ़ से पल्टा चिमट गया सद तल्ख़ियों की शाख़ पे बैठी थी मौज-ए-नीम बरगद से आ के झोंका हवा का पलट गया थी शहर-ए-इंहिसार में फिसलन गली गली मैं लड़खड़ा गया मिरा ख़च्चर रपट गया तारीक बे-कनार समुंदर पड़ा रहा मंज़र तमाम ग़ार के अंदर सिमट गया