अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई अजीब मैना है शिकरों में आ के बैठ गई जगा रहा है ज़माना मगर नहीं खुलतीं कहाँ की नींद इन आँखों में आ के बैठ गई वो फ़ाख़्ता जो मुझे देखते ही उड़ती थी बड़े सलीक़े से बच्चों में आ के बैठ गई तमाम तल्ख़ियाँ साग़र में रक़्स करने लगीं तमाम गर्द किताबों में आ के बैठ गई तमाम शहर में मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू है यही कि शाहज़ादी ग़ुलामों में आ के बैठ गई नहीं थी दूसरी कोई जगह भी छुपने की हमारी उम्र खिलौनों में आ के बैठ गई उठो कि ओस की बूँदें जगा रही हैं तुम्हें चलो कि धूप दरीचों में आ के बैठ गई चली थी देखने सूरज की बद-मिज़ाजी को मगर ये ओस भी फूलों में आ के बैठ गई तुझे मैं कैसे बताऊँ कि शाम होते ही उदासी कमरे के ताक़ों में आ के बैठ गई