पहली सी अब वो शोख़ी गुफ़्तार भी नहीं मुद्दत से ज़ौक़-ए-नग़्मा-ओ-अशआर भी नहीं सूनी पड़ी है मंज़िल-ए-दीवानगी-ए-इश्क़ क्या हो गया कि कोई सर-ए-दार भी नहीं वाइ'ज़ शराब-नोशी के बेहद ख़िलाफ़ हैं मिल जाए मुफ़्त की तो कुछ इंकार भी नहीं वो सामने जो आए तो नज़रें न उठ सकीं अब मुझ में जैसे ताक़त-ए-दीदार भी नहीं कब होगी ख़त्म 'ताहिरा' शाम-ए-ग़म-ए-हयात अब तक नुमूद-ए-सुब्ह के आसार भी नहीं