अना के दश्त में तन्हा भटक रहा है कोई सलीब-ए-शौक़ पे जैसे लटक रहा है कोई हमारे शहर का हाकिम अजीब मुंसिफ़ है किया है जुर्म किसी ने खटक रहा है कोई मिज़ाज-ए-इश्क़ है नाज़ुक बिसात-ए-हुस्न है कम वफ़ा की राह पे अब तक भटक रहा है कोई बड़ा ग़ुरूर है और क्यों न हो भला ख़ुद पर बदन है चाँद सा जैसे चमक रहा है कोई तुम्हारे दर्द की दस्तक पहुँच गई शायद 'शगुफ़्ता' इस लिए दामन झटक रहा है कोई