बशर को मशअ'ल-ए-ईमाँ से आगही न मिली धुआँ वो था कि निगाहों को रौशनी न मिली ख़ुशी की मा'रिफ़त और ग़म की आगही न मिली जिसे जहाँ में मोहब्बत की ज़िंदगी न मिली जिगर न था कि कोई फाँस सी चुभी न मिली जहाँ की ख़ाक उड़ाई कहीं ख़ुशी न मिली ये कह के आख़िर-ए-शब शम्अ हो गई ख़ामोश किसी की ज़िंदगी लेने से ज़िंदगी न मिली लबों पे फैल गई एक मौज-ए-ग़म अक्सर बिछड़ के तुझ से हँसी की तरह हँसी न मिली तवाफ़-ए-शम्अ पतंगों का जल के भी है वही जिगर की आग से आँखों को रौशनी न मिली सबात पा न सकेगा कोई निज़ाम-ए-चमन फ़सुर्दा ग़ुंचों को जिस में शगुफ़्तगी न मिली फ़लक के तारों से क्या दूर होगी ज़ुल्मत-ए-शब जब अपने घर के चराग़ों से रौशनी न मिली अभी शबाब है कर लूँ ख़ताएँ जी भर के फिर इस मक़ाम पे उम्र-ए-रवाँ मिली न मिली वो क़ाफ़िले कि फ़लक जिन के पाँव का था ग़ुबार रह-ए-हयात से भटके तो गर्द भी न मिली वो तीरा-बख़्त हक़ीक़त में है जिसे 'मुल्ला' किसी निगाह के साए की चाँदनी न मिली