अरमाँ को छुपाने से मुसीबत में है जाँ और शोले को दबाते हैं तो उठता है धुआँ और इंकार किए जाओ इसी तौर से हाँ और होंटों पे है कुछ और निगाहों से अयाँ और ख़ुद तू ने बढ़ाई है ये तफ़रीक़-ए-जहाँ और तू एक मगर रूप यहाँ और वहाँ और दिल में कोई ग़ुंचा कभी खिलते नहीं देखा इस बाग़ में क्या आ के बना लेगी ख़िज़ाँ और इतना भी मिरे अहद-ए-वफ़ा पर न करो शक हाँ हाँ मैं समझता हूँ कि है रस्म-ए-जहाँ और हर लब पे तिरा नाम है इक मैं हूँ कि चुप हूँ दुनिया की ज़बाँ और है आशिक़ की ज़बाँ और अब कोई सदा मेरी सदा पर नहीं देता आवाज़-ए-तरब और थी आवाज़-ए-फ़ुग़ाँ और कुछ दूर पे मिलती हैं हदें अर्ज़-ओ-समा की सहरा-ए-तलब में नहीं मंज़िल का निशाँ और इक आह और इक अश्क पे है क़िस्सा-ए-दिल ख़त्म रखती नहीं अल्फ़ाज़-ए-मोहब्बत की ज़बाँ और वो सुब्ह के तारे की झपकने सी लगी आँख कुछ देर ज़रा दीदा-ए-अंजुम-निगराँ और 'मुल्ला' वही तुम और वही कू-ए-हसीनाँ जैसे कभी दुनिया में न था कोई जवाँ और