अँधेरों की हुकूमत को मिटा कर अपने घर आया सवेरे जैसे ही आँखें खुली सूरज नज़र आया गया मथुरा बनारस और का'बा हर जगह लेकिन मिला दिल को सुकूँ जब लौट कर मैं अपने घर आया पड़ी है मार जब से वक़्त की डरने लगा हूँ मैं चढ़ा था जो जवानी का नशा पल में उतर आया कई काँटे बिछाए दोस्तों ने राह में मेरी उन्हें चुन कर उन्हीं राहों से मैं साबित गुज़र आया अकेला लड़ रहा हूँ ज़िंदगी की जंग बचपन से बला की भीड़ है कोई नहीं अपना नज़र आया घरों में क़ैद हो कर रह गई है ज़िंदगी सब की ज़माने की फ़ज़ा में दोस्त कैसा ये असर आया ज़माने वाले तो कहते रहेंगे कहने दो इन को हमेशा मारे हैं पत्थर नज़र जो भी शजर आया दुआओं का असर है मेरे पुरखों की ये 'इंदौरी' हमेशा दुश्मनों के घर में उन के पर कतर आया