है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की आँखों के तले फिरती है तस्वीर किसी की गिर्या भी है नाला भी है और आह-ओ-फ़ुग़ाँ भी पर दिल में हुई उस के न तासीर किसी की हाथ आए है क्या ख़ाक तिरे ख़ाक-ए-कफ़-ए-पा जब तक कि न क़िस्मत में हो इक्सीर किसी की यारो वो है बिगड़ा हुआ बातें न बनाओ कुछ पेश नहीं जाने की तक़रीर किसी की नाज़ाँ न हो मुनइ'म कि जहाँ तेरा महल है होवेगी यहाँ पहले भी ता'मीर किसी की मेरी गिरह-ए-दिल न खुली है न खुलेगी जब तक न खुले ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर किसी की आता भी अगर है तो वो फिर जाए है उल्टा जिस वक़्त उलट जाए है तक़दीर किसी की इस अबरू ओ मिज़्गाँ से 'ज़फ़र' तेज़ ज़ियादा ख़ंजर न किसी का है न शमशीर किसी की जो दिल से उधर जाए नज़र दिल हो गिरफ़्तार मुजरिम हो कोई और हो तक़्सीर किसी की