अंजाम ही को उस के न समझा न तू न मैं वर्ना ये ख़्वाहिशात बढ़ाता न तू न मैं होश-ओ-ख़िरद को काम में लाया न तू न मैं इस वास्ते कमाल को पहुँचा न तू न मैं समझौता कर लें बैठ के आ ऐ मिरे ज़मीर समझौता मस्लहत से करेगा न तू न मैं हालात-ए-हाज़िरा की नज़र है बहुत अमीक़ हालात-ए-हाज़िरा से बचेगा न तू न मैं ज़िल्लत सिवाए कुछ न मिलेगा जो होता इल्म अपनों को अपना हाल सुनाता न तू न मैं शायद इसी लिए कि नहीं कीं ख़ुशामदें मंज़िल को अपनी कोई भी पहुँचा न तू न मैं इक शहर-ए-दर्द-मंद जो होता हमारा शहर इतना निढाल दर्द से होता न तू न मैं