चली जाना है सारी आब-ओ-ताब आहिस्ता आहिस्ता कि जैसे ख़त्म होती है किताब आहिस्ता आहिस्ता यूँही आहिस्ता आहिस्ता न जाने हम कहाँ पहुँचें कि हम ने कर लिया सर माहताब आहिस्ता आहिस्ता ज़माना कह रहा है इंक़लाब और मुझ को लगता है चली आती है मौज-ए-इज़्तिराब आहिस्ता आहिस्ता अगर होती रहीं उल्टी यूँही ख़्वाबों की ता'बीरें न आँखें तर्क कर दें अपने ख़्वाब आहिस्ता आहिस्ता कहीं एहसास-ए-नाकामी न हो जिस के छुपाने को ये ना'रा हो हम होंगे कामयाब आहिस्ता आहिस्ता उठो रू-पोश होने जा रहे हैं लफ़्ज़ उर्दू से छपा है जिस तरह लफ़्ज़-ए-शिताब आहिस्ता आहिस्ता 'सआदत' काश कोई फ़ाएदा तू भी उठा लेता रवाना हो गया तेरा शबाब आहिस्ता आहिस्ता