अंजुमन से मुझे इस तरह उठाने वाले उँगलियाँ तुझ पे उठाएँगे ज़माने वाले हाए कुछ तुझ को नहीं मेरी तमन्ना का लिहाज़ मेरी जानिब से नज़र फेर के जाने वाले सोचता हूँ कि तिरी चश्म-ए-करम होने तक मुझ को अफ़्साना बना देंगे ज़माने वाले रौनक़-ए-बज़्म बढ़ाना ही नहीं काम अपना हम हैं सहरा को भी गुलज़ार बनाने वाले इक़तिज़ा वक़्त का जो चाहे करा ले वर्ना हम न थे ग़ैर के एहसान उठाने वाले क्या बताओगे सबब गिर्या-ए-ग़म का 'नाज़िम' पूछ बैठेंगे अगर तुम से ज़माने वाले