अपने नाले में गर असर होता क़तरा-ए-अश्क भी गुहर होता जिन के नामे की है पहुँच तुझ तक काश मैं उन का नामा-बर होता दिल न देता जो मैं तुझे ज़ालिम क्यूँ मिरी जान का ज़रर होता फिर न करता सितम किसी पे अगर हाल से मेरे बा-ख़बर होता ख़ून-ए-उश्शाक़ करते क्यूँ नाहक़ गर बुतों को ख़ुदा का डर होता काम आता मैं एक दिन प्यारे रब्त मुझ से तुझे अगर होता खींचती फ़ौज-ए-ख़त जो हुस्न पे तेग़ सीना मेरा ही वाँ सिपर होता 'सोज़' को शौक़ काबे जाने का है बहुत पर ज़्यादा-तर होता शैख़ मानिंद तेरे उस के पास बार-बरदारी को जो ख़र होता