अपने पुरखों की रिवायात से हटता हुआ मैं ज़िंदगी तेरे सभी रंगों से कटता हुआ मैं हद-ए-इदराक से आगे है रसाई लेकिन अपने अंदर किसी मरकज़ पे सिमटता हुआ मैं है मोहब्बत ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-मुलाक़ात का नाम आग बन के किसी पैकर से लिपटता हुआ मैं कैसे ला-यानी इरादों की चुभन है मुझ में कैसी आवाज़ों पे हर लम्हा पलटता हुआ मैं कोई वहशी है मिरी ज़ात में पिन्हाँ हर शब इक दरिंदे की तरह उस पे झपटता हुआ मैं ज़िंदगी रज़्म-गह-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है 'अंजुम' एक बेबस की तरह उस से निमटता हुआ मैं