अपनी धुन में ही जो चुप-चाप गुज़र जाता हूँ तुम समझते हो बड़े शौक़ से घर जाता हूँ ले के चल पड़ता है मुझ को जो ख़यालात का रथ जब तिरे शहर में पहुँचे मैं उतर जाता हूँ अपने ही दर्द की उँगली से लगा रहने दे मैं ग़म-ए-दहर की इस भीड़ से डर जाता हूँ कोई किस तरह मिरे जिस्म में आ जाता है मैं बदन छोड़ के अपना ये किधर जाता हूँ तुम समझते हो कि घर लौट गया है 'अज़्मी' मैं तो हर शब तिरी दहलीज़ पे मर जाता हूँ