हिसार-ए-क़र्या-ए-खूँबार से निकलते हुए ये दिल मलूल था आज़ार से निकलते हुए बड़ी ही देर तलक धूप मुझ को छू न सकी तुम्हारे साया-ए-दीवार से निकलते हुए कि फिर से तख़्त को आना था मेरे क़दमों में मैं पुर-यक़ीन था दरबार से निकलते हुए शुआ-ए-नूर के फूटे से जाँ लरज़ती थी तुम्हारी गर्मी-ए-रुख़्सार से निकलते हुए तुम्हारे ध्यान में गुम हो गई थी महकी हवा हुदूद-ए-जादा-ए-गुलज़ार से निकलते हुए मैं लौट आया तुझे छोड़ कर मगर आधा वहीं रहा दर-ओ-दीवार से निकलते हुए फ़ज़ा में देर तलक ख़ूब जगमगाते 'शुमार' वो लफ़्ज़ शोख़ी-ए-गुफ़्तार से निकलते हुए