अपनी क़िस्मत में अगर ऐश के सामाँ होते

अपनी क़िस्मत में अगर ऐश के सामाँ होते
ऐन मुमकिन था कि हम और परेशाँ होते

बाग़बाँ नाज़ न कर अपने चमन-ज़ारों पर
हम ने देखे हैं चमन-ज़ार बयाबाँ होते

और ही ढंग से तंज़ीम-ए-गुलिस्ताँ होती
दूर-अंदेश अगर अहल-ए-गुलिस्ताँ होते

यही दुनिया जो जहन्नुम है वो जन्नत होती
अपने किरदार से इंसाँ अगर इंसाँ होते

शाख़-ए-नाज़ुक पे खुले ही थे कि मुरझा भी गए
एक दिन फूल यही शान-ए-बहाराँ होते

अपने ही घर की किसी शय पे नहीं हक़ अपना
इस से बेहतर था कि हम बे-सर-ओ-सामाँ होते

हम ने हर जौर सहा उन का ख़ुशी से लेकिन
काश वो अपनी जफ़ाओं पे पशेमाँ होते

कोई ख़ूबी न कोई वस्फ़ न कोई जौहर
हम अगर होते तो किस बात पे नाज़ाँ होते

तब्अ' मौज़ूँ में अगर ज़ोर-ए-बयाँ भी होता
हम भी औरों की तरह शो'ला-ब-दामाँ होते

ऐ 'कँवल' पा-ए-तलब ही में थी लग़्ज़िश वर्ना
मरहले जो भी थे इस राह में आसाँ होते


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