अपनी तक़दीर को पीटे जो परेशाँ है कोई आप के बस में इलाज-ए-ग़म-ए-दौराँ है कोई रोकिए उस को जो इस वक़्त ग़ज़ल-ख़्वाँ है कोई जेल में नग़्मा-सराई का भी इम्काँ है कोई अपनी मर्ज़ी से तो उगते नहीं ख़ुद-रौ पौदे हम ग़रीबों का ब-हर-हाल निगहबाँ है कोई ज़र्द चेहरों को तबस्सुम ने किया है रुस्वा वर्ना ज़ाहिर भी न होता कि परेशाँ है कोई हिर्स दरबान को आक़ा का मुसाहिब समझे सब्र आक़ा को समझता है कि दरबाँ है कोई चाप सुन कर जो हटा दी थी उठा ला साक़ी शैख़ साहब हैं मैं समझा था मुसलमाँ है कोई मुझ से काफ़िर के यहाँ 'शाद' मुकम्मल सरक़ा असस-ए-शहर बड़ा साहब-ए-ईमाँ है कोई