अपना एजाज़ दिखा दे साक़ी आग से आग बुझा दे साक़ी नक़्श-ए-बेदाद मिटा दे साक़ी हम को आज़ाद बना दे साक़ी वो उठीं काली घटाएँ तौबा अब तो पीने की रज़ा दे साक़ी जिस से सोए हुए दिल चौंक उठें नग़्मा इक ऐसा सुना दे साक़ी तुझ को मुस्तक़बिल-ए-ज़र्रीं की क़सम पिछली बातों को भुला दे साक़ी सदर-ए-मय-ख़ाना बनाया था कभी अब जहाँ चाहे बिठा दे साक़ी वो जो तस्बीह लिए है उस को मेरे आगे से उठा दे साक़ी नश्शा-ए-फ़िक्र अभी बाक़ी है एक जाम और उठा दे साक़ी क़स्र-ए-औहाम को ढाने के लिए सारा मय-ख़ाना लुंढा दे साक़ी सब जिसे कहते हैं 'वामिक़' 'वामिक़' हम को भी उस से मिला दे साक़ी