अपने बदन की आग में जलना पड़ा मुझे फिर ये हुआ कि राख में ढलना पड़ा मुझे आसान इतनी होती नहीं राह इश्क़ की फूलों के साथ काँटों पे चलना पड़ा मुझे सूरज ग़मों का सर पे रहा है तमाम उम्र और क़तरे क़तरे रोज़ पिघलना पड़ा मुझे मैं जानता था दुख बहुत होगा मुझे मगर उस की गली से हो के निकलना पड़ा मुझे कब तक मैं छुपता रहता भला तीरगी से 'क़ल्ब' फिर मिस्ल-ए-आफ़्ताब निकलना पड़ा मुझे