अपने दुश्मन को तो मैं ऐसी सज़ा देती हूँ क़त्ल करती नहीं नज़रों से गिरा देती हूँ बे-अदब लोग जो होते हैं मिरी नज़रों में उन को महफ़िल से नहीं दिल से उठा देती हूँ ज़ो'म हो जिस में तो नर्मी से नहीं मिलती मैं तल्ख़-गोई से ही कमज़ोर बना देती हूँ रस्म-ए-उल्फ़त को निभाने के लिए मैं अक्सर ख़ुद को ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा देती हूँ दिल मिरा यूँ ही नहीं होता है 'अस्मा' हल्का अपनी इन आँखों से आँसू जो बहा देती हूँ