अपने हाल-ए-दिल पे ख़ुद ही मुस्कुरा सकता हूँ मैं कब किसी के रहम का एहसाँ उठा सकता हूँ मैं आशियाँ को फूँक सकती है अगरचे बिजलियाँ शाख़-ए-गुल पर बार बार इस को बना सकता हूँ मैं दास्तान-ए-ग़म को कह सकता हूँ सिर्फ़ इक आह मैं और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ मैं तुम अगरचे बख़्श सकते हो मुझे तन्हाइयाँ अपनी तन्हाई को भी महफ़िल बना सकता हूँ मैं बे-रुख़ी से तोड़ सकते हो दिल-ए-नाज़ुक को तुम और शिकस्ता-साज़ दिल पर गुनगुना सकता हूँ मैं हर क़दम पर ज़ीस्त ने आ कर झिंझोड़ा है मुझे ज़िंदगी से क्या कभी आँखें चुरा सकता हूँ मैं इतनी देखी हैं बहारें इतनी देखी है ख़िज़ाँ अब तो इन का फ़र्क़ भी दिल से मिटा सकता हूँ मैं तुम को ये दा'वा कि तुम हर अंजुमन की जान हो ज़ो'म है मुझ को कि हर महफ़िल पे छा सकता हो मैं वो निगाह-ए-लुत्फ़ गर तुझ को मयस्सर हो 'हबीब' ज़िंदगी को इक नई मंज़िल पे ला सकता हूँ मैं