अश्क-ए-ग़म आँखों से कितने बह गए जो न कहना था उसे हम कह गए छुट के तुझ से बे-सहारे रह गए ज़िंदगी के सब किनारे बह गए कोई इंसाँ सा असीर-ए-ग़म नहीं आई जो सर पर हमारे सह गए देख कर दुनिया के ये तौर-ओ-तरीक़ कितने नग़्मे घुट के दिल में रह गए पहुँचा दीवाना तो मंज़िल पर मगर ईन-ओ-आँ में हम उलझ कर रह गए तेरा ग़म फ़िक्र-ए-जहाँ तन्हाइयाँ दाग़ हम सीने पे क्या क्या सह गए हिज्र में भी वस्ल के आए मज़े यूँ तसव्वुर में हम उन के बह गए किस ने पाई तेरी नज़रों से पनाह दिल को अपने अब बचाते रह गए अब जवानी का वहाँ जोश-ओ-ख़रोश ऐ 'हबीब' अब हौसले सब ढह गए