अपने ही शहर में अजनबी हो गया दोस्तों ने जो चाहा वही हो गया ग़ैर तो ग़ैर अपनों से निस्बत नहीं किस क़दर ख़ुद-ग़रज़ आदमी हो गया प्यार इख़्लास दिल-बस्तगी दिलबरी आज-कल पैकर-ए-काग़ज़ी हो गया क़त्ल उस ने किया अपना कह कर मुझे सारे इल्ज़ाम से भी बरी हो गया लोग क्यों उस को मग़रूर कहने लगे पैदा जिस में शुऊ'र-ए-ख़ुदी हो गया क्या कोई इंक़लाब और आने को है चेहरा ग़ुंचों का क्यों शबनमी हो गया जो भी गुज़रा है 'ख़ालिद' तिरी याद में लम्हा वो हासिल-ए-ज़िंदगी हो गया