बुझी बुझी सी तबीअ'त ये रंग लाई है कि आज चारों तरफ़ मेरी जग-हँसाई है नसीम-ए-सुब्ह बता तू ज़रा ख़ुदा के लिए ये किस के वास्ते आख़िर बहार आई है ख़ुदा ही जाने वो आएँगे या न आएँगे सलाम भेज के तक़दीर आज़माई है तजल्ली-ए-रुख़-ए-ज़ेबा से हूँ अगर महरूम मिरी ख़ता नहीं क़िस्मत की ना-रसाई है जहाँ का ग़म तो नहीं है मगर मुझे 'ख़ालिद' ख़ुदा का ख़ौफ़ भी है और ग़म-ए-ख़ुदाई है