अपने होने का इक इक पल तजरबा करते रहे नोक-ए-नेज़ा पर भी हम रक़्स-ए-अना करते रहे इक मुसलसल जंग थी ख़ुद से कि हम ज़िंदा हैं आज ज़िंदगी हम तेरा हक़ यूँ भी अदा करते रहे हाथ में पत्थर न था चेहरे पे वहशत भी न थी फिर वो क्या था जिस पे हम यूँ क़हक़हा करते रहे कुछ न कुछ तो पेश-ए-मंज़र में भी शायद था कहीं कुछ पस-ए-मंज़र भी हम आब-ओ-हवा करते रहे बे-तलब बढ़ता रहा हर लम्हा क़र्ज़-ए-जाँ का बोझ बे-सबब ही हर नफ़स ख़ुद को अदा करते रहे दूर तक फैला दिए कोहसार जंगल वादियाँ रिज़्क़ आँखों को दिया हर पल नया करते रहे तुम तो ऐ ख़ुशबू हवाओ उस से मिल कर आ गईं एक हम थे ज़ख़्म-ए-तन्हाई हरा करते रहे ज़हर ख़ुद बोते रहे उजली हवाओं में 'कमाल' चंद साँसों को भी हम बे-ज़ाइक़ा करते रहे