होता रहा फ़िराक़ में लाग़र तमाम रात हाथों से उठ सका भी न साग़र तमाम रात बदलीं शब-ए-फ़िराक़ में कुछ इतनी करवटें आए हैं याद देस के मच्छर तमाम रात बढ़ने दो सोज़-ए-इश्क़ में ये दिल की धड़कनें जलते रहें ये आग के हीटर तमाम रात वो बाँधते रहे मैं उसे खोलता रहा बिछ ही सका न ढंग से बिस्तर तमाम रात कश्मीर के हवाले से ख़्वाब-ओ-ख़याल में उगते रहे हैं सर्व-ओ-सनोबर तमाम रात 'बुलबुल' किसी हसीन पे यूँ दिल मचल गया नाचा हो जैसे सहन में बंदर तमाम रात