अपने पैरों पे किसी तौर खड़े होते नहीं बूढ़े हो जाते हैं हम लोग बड़े होते नहीं सब्र-ओ-ख़ामोशी की ज़ंजीर जकड़ लेती है अब कलाई में बग़ावत के कड़े होते नहीं हल्क़ा-ए-इश्क़ में सब चाक-दिलाँ मिलते हैं इस क़बीले में कोई ख़ास धड़े होते नहीं ऐसे उस शख़्स के लहजे से पिघल जाते हैं जैसे हम लोग कभी ज़िद पे अड़े होते नहीं ठोकरों बा'द कहीं नज़रों में आते हैं 'अक़ील' हम अँगूठी में नगीने तो जड़े होते नहीं