अपने तख़य्युलात का नक़्शा निकाल के ग़ज़लें कहीं हैं ख़ून पसीना निकाल के घर को किया था साफ़ किसी का मिटा के घर अफ़्सोस कर रहा हूँ मैं जाला निकाल के तुम को क़लंदरी की है दिल में जो आरज़ू रखनी पड़ेगी दिल से ये दुनिया निकाल के अब उस की असलियत है ज़माना के सामने चेहरे से उस ने रख दिया चेहरा निकाल के मौजों से लड़ना उस की थी आदत इसी लिए वो आ गया किनारे पे रस्ता निकाल के दिल बुझते बुझते मेरा अचानक चमक उठा ये कौन खींच लाया उजाला निकाल के आँखें तरेरते हुए वो देखते हैं अब रक्खा था जिन को अपना कलेजा निकाल के पूछो न बे-ज़मीरों से कैसे बचे 'अदीब' ले आए अपने आप को ज़िंदा निकाल के