अपने ऊपर ज़ुल्म करूँगा उल्टा सीधा सोचूँगा जब तक होश रहेगा मुझ को सारी दुनिया सोचूँगा सुख-दुख से हट कर इंसाँ को और भला जीना क्या है बाँध के रातों के दामन से धूप सरापा सोचूँगा एक हाथ में प्यासी रातें एक हाथ में भीगे दिन अच्छे दिन जब खो जाएँगे बुरा बुरा सा सोचूँगा जी करता है शीशा बन कर मैं उस से टकरा जाऊँ वो पत्थर-दिल रह-ए-तलब में पत्थर कब था सोचूँगा काएनात का ज़र्रा ज़र्रा ख़ुद चेहरा ख़ुद आईना आँखें जितनी साथ रहेंगी ख़ुद को उतना सोचूँगा रौशन घर रौशन अँगनाई रौशन दिन रौशन रातें उन के बीच मिरा दिल क्यों है इतना धुँदला सोचूँगा बेहतर है बस अपनी गहराई में जा कर बैठ रहूँ और बिखर जाऊँगा शायद तुम को जितना सोचूँगा वक़्त भी कब से भाग रहा है अपने मरकज़ की जानिब मेरे साथ रहेगा कब तक कोई अपना सोचूँगा यूँ भी राह-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र में जीवन भर भटका 'पर्वाज़' अपनी गुमराही का ये ग़म आख़िर कितना सोचूँगा