अपनी आँखों के सदफ़ को हुस्न का गौहर न दे शाम की वीरानियाँ दे सुब्ह का मंज़र न दे साथ है बे-चेहरगी के कारवाँ का सिलसिला दोस्ती के आइने को याद का जौहर न दे सर्द रूमानी पहर का जज़्बा-ए-तख़्लीक़ हूँ मुझ को अय्याम-ए-गुज़िश्ता की कोई चादर न दे फ़िक्र-ओ-फ़न का इक नया अंदाज़ हूँ इस दौर में गर्द-ए-राह-ए-आगही हूँ आसमाँ दे घर न दे रफ़्ता-रफ़्ता मस्लहत की नहर में उतरूँगा जब ऐ ग़म-ए-दौराँ तू मुझ को वहम का नश्तर न दे शायरी अपनी है 'जामी' अहद-ए-नौ की दास्ताँ 'मीर' के आँसू सही ख़य्याम के तेवर न दे