अपनी अना के गुम्बद-ए-बे-दर में बंद है लेकिन ब-ज़ोम-ए-ख़ुद वो फ़लक तक बुलंद है हर मंज़िल उन के वास्ते बस इक ज़क़ंद है वो लोग अपना अज़्म ही जिन का समंद है आता है बार बार फ़रेब-ए-ख़ुलूस में क्या सादा-लौह अपना दिल-ए-दर्द-मंद है जो इल्तिहाब-ए-आतिश-ए-ग़म से है नाला-ए-कश वो दिल नहीं चटख़्ता हुआ इक सिपंद है शायद मआल-ए-ख़ंदा-ए-गुल है निगाह में लब पर कली कली के अजब ज़हर-ए-ख़ंद है हर ज़ी-हयात इस में रहे उम्र भर असीर तार-ए-नफ़स भी एक तरह की कमंद है शामिल हैं तल्ख़ियाँ भी हलावत के साथ साथ ये ज़िंदगी है ज़हर-ए-हलाहल न क़ंद है 'तनवीर' शहर-ए-संग में शीशागरी की बात यारान-ए-मेहरबाँ को बहुत ना-पसंद है