अपनी अज़्मत को वो मिट्टी में मिला देते हैं कर के एहसान जो एहसान जता देते हैं दिल में यादों के चराग़ों को फ़रोज़ाँ कर के हम शब-ए-ग़म के अँधेरों को सज़ा देते हैं जानते हैं रग-ए-हर-गुल में लहू है मेरा फिर भी सावन में मुझे लोग भुला देते हैं क्या यक़ीं आए कि शक भी नहीं होता उन पर इस सलीक़े से कई लोग दग़ा देते हैं हम तो हँस हँस के छुपाते हैं हर इक ग़म को 'शकील' बाज़ ग़म हैं जो हँसी में भी रुला देते हैं