अपनी भीगी हुई पलकों पे सजा लो मुझ को रिश्ता-ए-दर्द समझ कर ही निभा लो मुझ को चूम लेते हो जिसे देख के तुम आईना अपने चेहरे का वही अक्स बना लो मुझ को मैं हूँ महबूब अँधेरों का मुझे हैरत है कैसे पहचान लिया तुम ने उजालो मुझ को छाँव भी दूँगा दवाओं के भी काम आऊँगा नीम का पौदा हूँ आँगन में लगा लो मुझ को दोस्तों शीशे का सामान समझ कर बरसों तुम ने बरता है बहुत अब तो सँभालो मुझ को गए सूरज की तरह लौट के आ जाऊँगा तुम से मैं रूठ गया हूँ तो मना लो मुझ को एक आईना हूँ ऐ 'नक़्श' मैं पत्थर तो नहीं टूट जाऊँगा न इस तरह उछालो मुझ को