हर नफ़स पर ये गुमाँ है कि ख़ता हो जैसे उम्र यूँ गुज़री कि जीने की सज़ा हो जैसे मैं ब-हर-तौर हूँ पाबंद-ए-शुमार-ए-अन्फ़ास साज़ हर हाल में मजबूर-ए-नवाँ हो जैसे ज़िंदगी अम्र-ए-मशिय्यत है मगर क्या कहिए वो नदामत है कोई जुर्म किया हो जैसे मुझ को हर हादिसा-ए-अस्र हुआ यूँ महसूस मेरे ही दिल के धड़कने की सदा हो जैसे इस तरह नाज़ है दामान-ए-तही पर मुझ को मेरी महरूमी भी उस की ही अता हो जैसे ख़ंदा-ए-गुल से भी एहसास पे यूँ चोट लगी मेरे ही चाक गरेबाँ पे हँसा हो जैसे यूँ निबर्द-आज़्मा हर नफ़्स-ओ-ज़मीर आज भी है ज़िंदगी मा'रका-ए-कर्ब-ओ-बला हो जैसे अर्सा-ए-ज़ेहन में यूँ फ़िक्र है लग़ज़ीदा ख़िराम दश्त-ए-पुर-ख़ार में इक आबला-पा हो जैसे यूँ मिरी ज़ीस्त भी बरगश्ता है मुझ से 'अतहर' किसी बे-मेहर के दामन की हवा हो जैसे