अपनी गुमशुदगी की अफ़्वाहें मैं फैलाता रहा जो भी ख़त आए बिना खोले ही लौटाता रहा ज़ेहन के जंगल में ख़ुद को यूँ भी भटकाता रहा उलझनें जो थीं नहीं उन को ही सुलझाता रहा मुस्कुराहट की भी आख़िर असलियत खुल ही गई ग़म ज़माने से छुपाने का मज़ा जाता रहा और रंगीं हो गई उस के तबस्सुम की धनक इश्क़ का सूरज हया की बर्फ़ पिघलाता रहा मेरा चेहरा खो गया चेहरों के इस बाज़ार में जाने क्या क्या रूप मैं दुनिया को दिखलाता रहा शहर के चौराहे पर पाई थी उस ने तर्बियत उम्र भर औरों के आगे हाथ फैलाता रहा