अपनी हर बात ज़माने से छुपानी पड़ी थी फिर भी जिस आँख में देखा तो कहानी पड़ी थी मैं ने कुछ रंग चुराए थे किसी तितली के और फिर उम्र हिफ़ाज़त में बितानी पड़ी थी कल किसी इश्क़ के बीमार पे दम करना था पीर-ए-कामिल को ग़ज़ल मेरी सुनानी पड़ी थी कूचा-ए-इश्क़ से नाकाम पलटने वाले तू ने देखा था वहाँ मेरी जवानी पड़ी थी दिल न सह पाया किसी और से क़ुर्बत उस की मुझ को दीवार से तस्वीर हटानी पड़ी थी मैं बहुत जल्द बुढ़ापे में चला आया था बिन तिरे उम्र की रफ़्तार बढ़ानी पड़ी थी उस की हसरत का बदन बर्फ़ न हो जाए कहीं अपने सीने में मुझे आग लगानी पड़ी थी तेरे 'मुमताज़' को ग़म मौत का बस इस लिए है अपने बालों में तुझे ख़ाक रवानी पड़ी थी