फ़रेब-ए-ज़ौ में हमें किस ने ला उछाला है सुझाई कुछ नहीं देता कहाँ उजाला है वगर्ना कौन था जो तेरी परवरिश करता ख़ुदा-ए-फ़िक्र तुझे मैं ने ही तो पाला है तमाशा देखती आँखो सलामती पाओ तुम्हारे शौक़ से कर्तब मिरा निराला है मैं अपने कर्ब को सहला रहा हूँ मुद्दत से ये मेरी राख पे सर रख के सोने वाला है मिरे लिए है वही मेरा हुक्म-ए-कुन 'शाहिद' हिसार-ए-वक़्त से जो लम्हा भी निकाला है