अपनी ही तेग़-ए-अदा से आप घायल हो गया चाँद ने पानी में देखा और पागल हो गया वो हवा थी शाम ही से रस्ते ख़ाली हो गए वो घटा बरसी कि सारा शहर जल-थल हो गया मैं अकेला और सफ़र की शाम रंगों में ढली फिर ये मंज़र मेरी नज़रों से भी ओझल हो गया अब कहाँ होगा वो और होगा भी तो वैसा कहाँ सोच कर ये बात जी कुछ और बोझल हो गया हुस्न की दहशत अजब थी वस्ल की शब में 'मुनीर' हाथ जैसे इंतिहा-ए-शौक़ से शल हो गया