अपनी ज़मीं से दूर ज़मान-ओ-मकाँ से दूर हम ने सजा लिया है क़फ़स आशियाँ से दूर माना कि हम वतन से अज़ीज़ों से दूर हैं तहज़ीब से जुदा हैं न उर्दू ज़बाँ से दूर महसूर तंगना-ए-मसालिक में हम नहीं दैर-ओ-हरम से दूर हैं कू-ए-बुताँ से दूर महसूस कर रहे हैं विलायत में आज-कल हिन्दोस्ताँ में रहते हैं हिन्दोस्ताँ से दूर सोज़-ए-यक़ीन मिशअल-ए-राह-ए-हयात है तश्कील से बुलंद हैं वहम-ओ-गुमाँ से दूर 'सुल्तान' असीर-ए-ज़ुल्फ़ हुए भी तो किस के आप दिल से बहुत क़रीब हैं और जिस्म-ओ-जाँ से दूर