अपनी जानिब तिरे दिल के सभी ग़म खींचते हैं तेरे अपने तो बढ़ा देते हैं हम खींचते हैं हाए ऐ ज़िंदगी अब तेरी मसाफ़त के अज़ाब बैठ जाते हैं किसी साए में दम खींचते हैं वहशत-ए-ज़ुल्मत-ओ-तन्हाई के लश्कर हैं उधर जिस तरफ़ मुझ को तिरे रहम-ओ-करम खींचते हैं सफ़्हा-ए-हस्ती-ए-फ़ानी पे ब-हर-सूरत-ए-शौक़ जो लकीरें नज़र आती हैं वो हम खींचते हैं मय से तौबा भी है लाज़िम तिरी तक़लीद भी फ़र्ज़ क्या करूँ अब जो तिरे नक़्श-ए-क़दम खींचते हैं हम जुनूँ-ज़ाद हैं जज़्बात के क़ाइल 'आफ़ाक़' कब तिरे हिज्र में ज़ंजीर-ए-अलम खींचते हैं