मिसाल-ए-बर्ग मैं ख़ुद को उड़ाना चाहती हूँ हवा-ए-तुंद पे मस्कन बनाना चाहती हूँ वो जिन की आँखों में होता है ज़िंदगी में मलाल उसी क़बीले से ख़ुद को मिलाना चाहती हूँ जहाँ के बंद हैं सदियों से मुझ पे दरवाज़े मैं एक बार उसी घर में जाना चाहती हूँ सितम-शिआ'र की चौखट पे अद्ल की ज़ंजीर बरा-ए-दाद-रसी अब हिलाना चाहती हूँ न-जाने कैसे गुज़ारूँगी हिज्र की साअ'त घड़ी को तोड़ के सब भूल जाना चाहती हूँ मसाफ़तों को मिले मंज़िल-ए-तलब 'नैनाँ' वफ़ा की राह में अपना ठिकाना चाहती हूँ