अपनी ना-कर्दा-गुनाही का सिला भी रख ले दिल के ख़ाने में ज़रा ख़ौफ़-ए-ख़ुदा भी रख ले तुझ को ले जाएगी सन्नाटे में इक रोज़ हयात अपने कानों के लिए संग-ए-सदा भी रख ले बुझ न जाए कहीं एहसास के शो'लों का मिज़ाज मुंजमिद वक़्त है थोड़ी सी हवा भी रख ले फ़ासला और बढ़ा देगी अना की दहलीज़ दरमियाँ ज़ीना-ए-इख़्लास-ए-वफ़ा भी रख ले ज़िंदगी दश्त-ए-तिलिस्मात की जानिब है रवाँ कुछ तो हमराह बुज़ुर्गों की दुआ भी रख ले रोज़ का मिलना गिराँ-बार-ए-तअ'ल्लुक़ न बने बे-सबब उस से कभी ख़ुद को जुदा भी रख ले