अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी कुछ हम न कह सके तो कुछ उस ने नहीं सुनी यूँ तो चहार सम्त है अपने हिसार-ए-शब हम तीरगी को छेद के लाते हैं रौशनी नादीदा मंज़रों से तराशे हैं ख़्वाब ज़ार कब दर-ख़ुर-ए-निगह कोई मंज़र है दीदनी ओछा था वार उस का मगर हम न बच सके किसी ज़हर में बुझाई थी उस शख़्स ने अनी हर-दिल-अज़ीज़ वो भी है हम भी हैं ख़ुश-मिज़ाज अब क्या बताएँ कैसे हमारी नहीं बनी औरों की तरह हम भी मगर झेल जाएँगे सब ज़िंदगी समझते हैं जिस को वो जाँ-कनी 'बिल्क़ीस' अपनी बात तो सब से अलग रही ना-गुफ़्तनी सुनी है कही ना-शुनीदनी