अपनी वहशत के नए ज़ख़्म छुपाऊँ कैसे By Ghazal << खोया क्या पाया क्या हिसाब... लड़खड़ाती हवा रोज़ कहती ह... >> अपनी वहशत के नए ज़ख़्म छुपाऊँ कैसे मैं तिरी याद की दीवार गिराऊँ कैसे शहर-ए-दिल में है वही आज भी चुप का आलम दर-ओ-दीवार सदाओं से सजाऊँ कैसे गुम्बद-ए-फ़िक्र में आवाज़ें ही आवाज़ें हैं मैं हर आवाज़ की तस्वीर बनाऊँ कैसे Share on: