खोया क्या पाया क्या हिसाब न कर तो अबस वक़्त को ख़राब न कर छोड़ हरगिज़ न राह-ए-हक़-गोई अपनी मंज़िल को यूँ ख़राब न कर साफ़ रख अपना दामन-ए-किरदार तू उसे अश्कों से पुर-आब न कर ग़म न कर दूसरों पे क्या गुज़रे तू कभी हक़ से इज्तिनाब न कर ग़म भी हैं ज़िंदगी का इक हिस्सा दूसरों को तू इंतिसाब न कर जो फ़राएज़ हैं भूल जाएँ 'करन' इस क़दर ख़ुद को महव-ए-ख़्वाब न कर