अपनों से कुछ उमीद भरोसा न यार का बाजी जो आसरा है तो परवरदिगार का लेती न नाम मैं तो कभी ऐसे यार का पर क्या करूँ ये दिल ही नहीं इख़्तियार का मछली फँसाने जाते हैं दरिया पे रोज़ वो छुटता नहीं है पिंड इस अंधे शिकार का जोबन ढले ज़ईफ़ हुई अब कहाँ वो हुस्न आई ख़िज़ाँ गया वो ज़माना बहार का आधा बदन तो यूँ ही खुला रहता है तिरा आया न बाँधना गमहो अब तक इज़ार का झंडा गड़ा था नाम का जिन के जहान में बाक़ी नहीं निशान भी उन के मज़ार का 'शैदा' के घर तो जाने को बैठी हूँ क्या करूँ डोली का है पता न पता है कहार का