पलटे कहाँ जो वादी-ए-इबहाम तक गए काज़िब तरीक़-ए-मजमा-ए-कोहराम तक गए हर इक थकन को ओढ़ के ख़ाकी वजूद पर हम ज़िंदगी को खोजने अंजाम तक गए दावा था जिन का शहर में कि पारसा हैं हम उन के क़दम भी कूचा-ए-दुश्नाम तक गए क़ाइल करूँ मैं किस तरह उस बद-गुमान को जब कि सफ़ीर हुज्जत-ए-इत्माम तक गए 'ताबिश' ये अहल-ए-अक़्ल के समरात ही तो हैं जाहिल जुनूँ में हर्बा-ए-हंगाम तक गए