अरे ख़ुदा के बंदे ख़ुद को रब की सम्त मोड़ तो वजूद बख़्शा जिस ने तुझ को रिश्ता उस से जोड़ तो बड़ी ही सहल-ओ-आसाँ ज़िंदगी हो जाएगी तिरी तू इत्तिबा'-ए-ख़्वाहिशात-ए-ज़िन्दगी को छोड़ तो जो लम्बे लम्बे ख़्वाब देख रखे हैं भरम है महज़ है अक़्ल-मंद तू अगर तो इस भरम को तोड़ तो है मुद्दतों से तेरे इंतिज़ार में भी इक लहद भलाई चाहे वाँ तो नफ़्स अपना कुछ मरोड़ तू जवाब देना चाहे गर तू मुनकर-ओ-नकीर को तू फ़िक्र-ए-आख़िरत में अपने आप को निचोड़ तो