आरिज़ में तुम्हारे क्या सफ़ा है मुँह आइना अपना देखता है दुम्बाला जो सुरमे का बना है ये तेग़-ए-निगह का पर तुला है बीमार जो तेरी चश्म का है नर्गिस पे कब आँख डालता है दो लाख फ़रेब-ए-हज़रत-ए-इश्क़ बंदा न कहेगा बुत ख़ुदा है सब कहते हैं जिस को माह-ए-कामिल नक़्शा कफ़-ए-पा-ए-यार का है गर्दिश में है चश्म ज़ेर-ए-अबरू क्या नीमचा चर्ख़ पर चढ़ा है मारा है दिखा के दस्त-ए-रंगीं शाहिद मिरे ख़ून की हिना है फिर आए बहार फिर हो वहशत दिल रोज़ दुआएँ माँगता है काँटों से ये कह रही है लैला मजनूँ मिरा बरहना-पा है जोबन पे हैं अब तो अनार-ए-पिस्ताँ नख़्ल-ए-क़द-ए-यार क्या फला है बे-वज्ह जो फिर गए हो फिर जाओ बंदे का भी ऐ बुतो ख़ुदा है जो चाहो करो कि तुम हो मुख़्तार मजबूर हूँ ज़ोर क्या मिरा है करती नहीं क्यूँ सफ़र मिरी रूह क्या बंद अदम का रास्ता है रोने में हैं याद दाँत उस के हर कू हर अश्क बे-बहा है वस्फ़ उस का 'क़लक़' हो किस ज़बाँ से वो बुत इक क़ुदरत-ए-ख़ुदा है